- यामिनी
द्विधा कृत्वात्मनो देहमर्धेन पुरुषोअमवत
अर्धेन नारी तस्या स दिराजं सृजत्प्रभु:|| ( मनुस्मृति)
अर्थात् हिरयन्गर्भ् ने अपने शरीर के दो भाग किये आधे से पुरुष और आधे से स्त्री का निर्माण हुआ। समाज का निर्माण स्त्री एवं पुरुष के संयोग से हुआ है, अतः समाज के संचालन के लिए जितनी अवश्यकता पुरुष की है उतनी ही स्त्री की भी। प्राचीन समय से स्त्री ने समाज के विकास एवं संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
आसमां में उड़ने की ख्वाहिशों को संग लेकर
बढ़ रहे कदम हमारे इंद्रधनुषी रंग देकर
जन्म लेना हो गर जो धरती पर,
बनूं नारी मै बार-बार।
हो सपना जब संकट से,
प्रकट होगा क्षम्य में व्यवहार ।
मान जाओ ए प्रलयंकारी
वरना विध्वंस होगे बार-बार…
आसमां में उड़ने की ख्वाहिशों को संग लेकर
बढ़ रहे कदम हमारे इंद्रधनुषी रंग देकर
चेतना के आविर्भाव का श्रेय,
ना किंचित इसमें संदेह,
मनु को दुविधा से निकाले,
श्रद्धा तेरा यही ध्येय।
धार न दिखाओ अपने तलवार की…
आसमां में उड़ने की ख्वाहिशों को संग लेकर
बढ़ रहे कदम हमारे इंद्रधनुषी रंग देकर
भावों के ब्रम्हांड की रचनात्मक शक्ति हूं,
श्रृंगा – रति, धनवंतरी,वात्सल्य से भरी हूं,
पल रहे गर्भ में बीज के जीवंत की प्राशक्ति हूं,
चराचर के चलायमान का,
दंभ ना भरो बारम्बार…
कि आसमां में उड़ने की ख्वाहिशों को संग लेकर
बढ़ रहे कदम हमारे इंद्रधनुषी रंग देकर
ईश्वरीय दूत क्रमवाद में
भेजी गई नारी नर के बाद मे।
जो सृष्टि के कठिन मंच पर,
लास्य संग तांडव की हुंकार हूं,
कठपुतली के खेल में
धागे से बंधकर भी,
जीवन की मधुर झंकार हूं।
जीवन तार तने हो जब,
ना करो रह रह प्रहार…
कि आसमां में उड़ने की ख्वाहिशों को संग लेकर
बढ़ रहे कदम हमारे इंद्रधनुषी रंग देकर
समुद्र की गहराइयों सी,
मन की व्यथा अब गांठ थी ।
बिखेर दू जो रंग धनुषी,
हर प्राण की आस थी ।
भक्ति, प्रेम, त्याग और बलिदान,
सौंदर्य, वीरता रही पहचान।
कर्मठ,सौहार्द्र और माधूर्य,
कोमलता जहां चल रही परवान।
पंख खोल उड़ना है,
चिड़ियों सा चहकना है,
गिद्ध सी नजर से अब,
शेर से लड़ना है।
आ जाओ ए प्रलायंकारी
परास्त हो ना हो जो इसबार भी,
या लौट जाओ मानकर
जश्न मनाओ अपने हार की…
आसमां में उड़ने की ख्वाहिशों को संग लेकर
बढ़ रहे कदम हमारे इंद्रधनुषी रंग देकर।।
इसलिए शायद यही कारण है कि स्त्री व पुरुष को अलग कर ही हम शिक्षा हो, कार्य हो, संवर्धन हो, कौशल हो सभी में स्त्री व पुरुष के प्रभाग को देखना और उस पर बातें करना स्वभाविक हो जाता है।
कलात्मक सं पुस्टता ही जो स्त्रियों को सौंदर्य के करीब लाती है। स्त्री का कलात्मक आधार ही उसकी सुंदरता को स्पष्ट करता है। स्त्री का जन्म ही कलात्मक है। पुरुष के 24 गुणसूत्र और स्त्री के 24 गुणसूत्र जब मिलते हैं तो स्त्री का निर्माण होता है। वहीं पुरुष के बीज में गुणसूत्रों की संख्या 24 तथा 23 होती है स्त्री तराजू के सामान संतुलित निर्मित है। यही कलात्मक बोध है, और सौंदर्य का परिचायक।
स्त्री व पुरुष मिलकर साथ काम करते है, तभी तो श्रद्धा ने मनु के मन मस्तिष्क में उठ रहे प्रलय प्रवाह को शांत किया था। इडा द्वारा राज्य के संतुलित संचालन ने मनु के मनाधार को आधारित किया। पग पग पर स्त्री ने कई रूप में मनु को स्वरूपित किया। जब तक जयशंकर प्रसाद जी की कामायनी की इन घटनाओं की चर्चा ना हो, स्त्री पुरुष की सहसहयोगिता का प्रमाण ना होगा। क्यों तुम तो आनंद हो, इर्ष्या, करुणा, आशा हो, भोग्या, सहचरी, सहभागिता हो। फिर क्यों तुम आज लड़ रही अधिकार को … । हां तुम विशिष्ठ हो जाती हो, सब कुछ एक जैसा कर भी । क्योंकि उसमे तुम्हारा त्याग है, समर्पण है, सहयोग है, अतृप्ति में भी तृप्ति में डूबी हर आश होती है।
स्त्री तुमने क्या पहना, क्या उतारा? समाज को ये आवश्यक लगा। तुम भी तो सोचती रहती हो । मैं इन पोशाकों में जो खुला खुला हो उसमे ज्यादा आधुनिक दिखूंगी, इस पोशाक में सुंदर दिखूंगी। पोशाक के सुंदर दिखने और खुले आधुनिक होने से ज्यादा जरूरी है, खुद के मन के संकुचित दायरे से बाहर निकलना। स्त्री की ये बौद्धिकता शिक्षा के समग्र में निहित है। लेकिन शिक्षा पाकर शिक्षित कम, आधुनिक ज्यादा हो जाती है। खुले की आदत हो जाती है। इस खुले की आदत से जरूरी है, विचारो को बंधन मुक्त होना। स्त्री के इसी भटकाव को पड़ाव की जरूरत है। जो शिक्षा के द्वारा ही संभव है।
प्रारंभ में शिक्षा लिखित कम, व्यवहारिक ज्यादा रही, और यह व्यवहार स्त्री व पुरुष के लिए समान रूप से घोषित भी रहा। धीरे धीरे मध्यकाल और पुनर्जागरण काल के दौरान स्त्री व पुरुष के लिए शिक्षा प्राप्त करने की धारणा अलग प्रदान की गई। वर्तमान दौर में यह बात सर्वमान्य है कि स्त्री को भी उतना शिक्षित होना चाहिये जितना की पुरुष को अधिकार है। यह अधिकार मै इसलिए कह रही क्योंकि पुरुष और स्त्री के शिक्षा प्राप्त करने में प्रारंभ से ही भेद भाव और अंतर स्पष्ट नजर आते है। मै संभ्रांत और सामान्य वर्ग विशेष पर अभी नहीं जा रही। एक नजरिए पर ध्यान आकृष्ट कर रही जिसपर आज समाज का एक बड़ा वर्ग नजर गड़ाए है। क्योंकि स्त्री का पढ़ना शिक्षित होना उन्हें सहज और स्वाभाविक नहीं लगता। जबकि यह सिद्ध सत्य है कि यदि माता शिक्षित नही होगी तो देश की सन्तानो का कदापि कल्याण नहीं हो सकता।
शिक्ष्’ का अर्थात सीखना और सिखाना। यानि सीखने-सिखाने की क्रिया। यह तब सार्थक होगी जब प्रत्येक मानव,( स्त्री व पुरुष) शिक्षा ग्रहण करें और उसे समाज में कौशल के साथ हस्तांतरित भी करें। यह शिक्षा स्त्रियों के लिए अतिशय आवश्यक है। क्योंकि स्त्री की उत्पति, चरित्र और चरित पूर्णतः किसी भी अनुभव को ग्रहण कर संवर्धित और पुनः हस्तांतरित करने की क्षमता प्रगाढ़ रखती है। हस्तांतरण की यह शिक्षा तो तब से प्रारंभ होती है, जब एक स्त्री अपने गर्भ में शिशु बीज को मानव प्राण प्रदान कर रही होती है। अभिमन्यु जैसे अनेक क्रियाशील, बलवान, बुद्धिमान, सृजनशील बालक ने जन्म लिया है। जिन्होंने अपने मां के गर्भ में ही मां की ऊर्जा, बौद्धिकता, चिंतन इन सभी का निचोड़ अपने भावी जीवन में प्रतिरूपित किया।
हम सभी जानते है, शिक्षा किसी समाज में सदैव चलने वाली सोद्देश्य सामाजिक प्रक्रिया है। जिसके द्वारा मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का विकास, उसके ज्ञान एवं कौशल में वृद्धि एवं व्यवहार में परिवर्तन किया जाता है और इस प्रकार उसे सभ्य, सुसंस्कृत एवं योग्य नागरिक बनाया जाता है। शिक्षा की गतिशीलता के कारण ही हम प्रगति की ओर बढ़ सकते है।
चुकी समाज में स्त्रियां ही शोषण का शिकार रही है। ऐसे में शिक्षा उनके लिए सशक्त वरदान है क्योंकि शिक्षा, कुरीतियों, बंधनों, शोषण के विरुद्ध आवाज उठाने की ताकत प्रदान करता है। अंग्रेजी शासन में शिक्षा प्रचार-प्रसार तो बढ़ा किंतु जैसी शिक्षा भारत के लिए उपयोगी हो सकती थी। उसे अंग्रेजों ने सुलभ नही बनाया।शिक्षा की व्यवस्था पर व्यंग करते हुए कविवर मैथलीशरण गुप्त की पंक्तियां –
शिक्षे! तुम्हारा नाश हो तुम नौकरी के हित बनी। हमे निरुत्तर करती है
लेकिन इसके विरूद्ध जब नारियां शिक्षा ग्रहण कर रही तो नारियों की शिक्षा तथा उनकी लगन का ही परिणाम है जो उन्हें देश सेवा की अग्रणी पंक्ति में स्थान दिला रहा है।
अतः पुनः नारी शिक्षा को व्यापक तथा समय सापेक्ष बनाने की नितान्त आवश्यकता है।