पुस्तक समीक्षा: अंजु रंजन की कविताओं में है जन्मभूमि से अलगाव की पीड़ा

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  • दिलीप कुमार

विस्थापन विश्व की सबसे भयावह समस्याओं में से एक है । बाढ़,अकाल तूफान तथा अशांति के कारण करोड़ों लोग विस्थापित हुए हैं । निश्चित रूप से यह विस्थापन बाहरी शक्तियों के दबाव में हुए और विस्थापित लोग न चाहते हुए भी अपनी जड़ों से कटकर स्थानों पर रहने के लिए बाध्य हुए । पूरी दुनिया में इस प्रकार के विस्थापित लोगों की संख्या करोड़ों में है । विस्थापन का एक दूसरा पहलू स्वैच्छिक विस्थापन का है जब लोग बेहतरी की तलाश में गांव से कस्बा और कस्बे से शहर की ओर भागते हैं । ऐसे लोग कुछ और पाने की आकांक्षा में एक देश से दूसरे देश में भी विस्थापित होते रहते हैं । रोजगार के कारण विस्थापित होने वाले लोगों की संख्या भी लाखों में हैं । युवा कवयित्री अंजु रंजन को ऐसे ही विस्थापितों की श्रेणी में रखा जा सकता है जो बेहतर कैरियर की तलाश में गांव से बाहर निकली और फिर शहर होते हुए महानगर और फिर भारतीय विदेश सेवा के लिए चयनित होने के उपरांत एक देश से दूसरे देश में प्रवासी जीवन जीने के लिए बाध्य हुईं । कारण चाहे जो भी हो,विस्थापन का दर्द सबको अपने दिलों में समेटना होता है । जब पूरब से ठंडी हवा का झोंका आता है तो कवयित्री अंजु रंजन के मन में यादों का पिटारा खुल जाता है । जन्मभूमि से अलगाव की पीड़ा को उकेरती नॉस्टैल्जिक यादों से उपजी कविताओं को अंजु रंजन ने अपने दूसरे संग्रह विस्थापन और यादें में शामिल किया है । 16 साल तक गांव में जिंदगी गुजारने के बाद शहरी माहौल में आना और फिर एक वरिष्ठ अधिकारी के रूप में इंडोनेशिया, नेपाल, स्कॉटलैंड तथा दक्षिण अफ्रीका में अपनी सेवाएं देते हुए अंजू रंजन ने कई बार अजनबीपन को महसूस किया । कुछ वैसे ही जैसे अंतिम मुगल बहादुर शाह जफर ने दिल्ली का ताज गंवाने के बाद रंगून में महसूस किया होगा । बंजारापन कविता में अंजु कहती हैं-
हरेक तीन वर्ष में एक शहर से दूसरे शहर
एक देश से दूसरे देश
एक कंटिनेंट से दूसरे तक
घुमंतू जनजातियों की तरह घूमती हूं

नोमैड कविता में लगातार शहर और देश के बदलने का दर्द एक बार पुनः दिखाई पड़ता है जब कवयित्री कहती हैं-
शहर बदल जाते हैं
देश बदल जाते हैं
धरती-आकाश
पेड़-पौधे, जीव-जंतु
यहां तक कि बादल
तूफान और मौसम
बदल जाते हैं
पर नहीं बदलते
मेरे मंजिल के रास्ते ।

वह जहां भी जाती हैं, यादों का पिटारा साथ में चलता है । बसंती हवा उन्हें जन्मभूमि की ओर आकृष्ट करती है और वह स्कॉटलैंड के पौधों को देखकर झारखंड को याद करती हैं-
स्कॉटलैंड के ठंडे बर्फीले मौसम में न जाने कैसे-
कब मेरे मन में छोटा नागपुर के जंगल उग आते हैं
झारखंड के जंगल मेरे साथ-साथ चलते हैं
और किसी भी जंगल में अचानक दिख जाते हैं ।
अंजु रंजन विस्थापन के दर्द को जिस तरह से महसूस करती हैं, बिना किसी लाग-लपेट के लिखती चली जाती हैं । उनकी यादों के दरीचे में करेला, करील, कद्दू, धतूरा,कनेर,मकई, करमा, जितिया,चौमासा, कजरी, आल्हा-ऊदल, सोरठा,तोता-मैना की कहानियां आदि शामिल हैं जो विस्थापन के दौरान उनके संग-संग चलते हैं ।

कविता संग्रह : विस्थापन और यादें कवयित्री : अंजु रंजन
प्रकाशक : वाणी दरियागंज, नई दिल्ली

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