प्रेम की पीड़ा में ही, प्रेम की पराकाष्ठा है

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  • यामिनी, कथक डांसर

अब वह प्रेम आत्मा, परमात्मा, व्यक्ति या वस्तु किसी से भी ही सकती है। प्रेम तो वैसे भी बिना स्वार्थ के होता है, फिर वह साधना भी होती है। साधना कलात्मक भी हो सकती है। सच कहा जाए तो प्रेम तो अपने अंदर होता है और वही प्रेम किसी विशिष्ट पर परिलक्षित होता है और हम कहते है, हम अमुक से प्रेम करते है।
पहली बार जब प्रेम हुआ था, तब शायद प्रेम से कहीं ज्यादा दर्द हुआ था। वह दर्द कि प्रिय से दूर ना हो जाऊं। वह विच्छोह की वेदना ही प्रेम की उन्मदित रस थी।
कहा गया है कि दर्द से, आह से निकलती है कविता। आपके साथ वाहवाहियाँ हैं तो कुछ आह भी है, जो कचोटती है और जो बाहर व्यक्त नहीं होता किन्तु अन्तर्मन को झकझोरती है। वही भाव जब काव्य बनकर प्रगट होता है तो सबको अपना सा लगता है।
“वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान। आंखों से चुपचाप बही होगी, कविता अनजान ” ——— सुमित्रा नंदन पंत की अचूक पंक्तियां अंदर तक हृदय को भेद देती है।
अनजान सूक्ष्म कथावस्तु को कल्पना और अलंकारों के सहारे विस्तार, कविता को चरम शिखर पर पहुंच आता है। क्या वाकई में वह कविता है? या हमारेे अपने मन की उद्वेलित भावना ?  हां उसी भावना के झंझावात से आलोकित वेदना एक व्यथा की तरंगे पद की मार्मिकता को सजीव करती है।
नृत्य संगीत की उत्पत्ति कब,कहां और कैसे हुई यह अकथ हैं। लेकिन सदा से नृत्य संगीत होती रही। सार्वभौम रूप से व्याप्त संगीत – नृत्य धर्म, अर्थ, काम मोक्ष की साधना रही है जहां इसकी आवश्यकता महसूस हुई हम साधना में संलग्न होते है। 
भगवान शंकर ने जब विष का पान कर नृत्य किया तब उन्होंने शायद अपने अंदर विष को विघटित कर संसार को जन्म मृत्यु के बंधन से पूर्ण किया। तांडव नृत्य की उत्पत्ति भयावह थी, असीम वेदना का प्राकट्य था। भगवान शंकर नटराज कहलाए, उनका पंच कृत्य से संबंधित नृत्य सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति एवं संहार का प्रतीक है।
मेनका ने विश्वामित्र के पत्थर समान कठोर व दृढ़ प्रतिज्ञ मानव हृदय को मोम सदृश्य पिघलाने के लिए नृत्य किया, तो विश्वामित्र के ह्रदय पर नृत्यात्मक सांगीतिक आघात ने ही आकर्षण को जन्म दिया। संगीत नृत्य का यही मनोवैज्ञानिक पक्ष है।  हम विच्छेद के भय से संधि को आकृष्ट होते है और नृत्य संगीत जन्म लेता रहता है सृष्टि में संवेदना का प्रवाहन श्रुतियों स्वर को जन्म देता है।
संस्कृत के पुलिंग-संज्ञा शब्द , “लास्य” का अर्थ है — ” नृत्य का एक प्रकार । इस नृत्य में, कोमलांगी कलाकार (विशेषतः नर्तकी) अपनी नृत्य कला से शृंगार रस के माध्यम से स्नेहसिक्त मनोभावों को प्रदर्शित करता है। यही कला की सं पुस्टता है जो स्त्रियों को सौंदर्य के करीब लाती है। स्त्री का कलात्मक आधार ही उसकी सुंदरता को स्पष्ट करता है। स्त्री का जन्म ही कलात्मक है। पुरुष के 24 गुणसूत्र और स्त्री के 24 गुणसूत्र जब मिलते हैं तो स्त्री का निर्माण होता है। वहीं पुरुष के बीज में गुणसूत्रों की संख्या 24 तथा 23 होती है स्त्री तराजू के सामान
संतुलित निर्मित है। यही कलात्मक बोध है, और सौंदर्य का परिचायक। 
नृत्य, संगीत, वाद्य की रीढ़ ताल होती है जो संपूर्ण संगीत को संतुलित रूप में निबद्ध कर रखती है। यही संगीत की सौंदर्य पृष्ठभूमि तैयार भी करती है। स्त्री की बनावट, प्रस्तुति में कलात्मकता निहित है। स्त्री सुंदर है अर्थात संगीत नृत्य कला में स्त्री के समान सौंदर्य व्याप्त है। भगवान विष्णु ने भी नारी स्वरूप मोहिनी का रूप धारण कर नृत्य किया था। कला के असीमित दायरे में सौंदर्य का समंदर सीमित है।

(नृत्य संगीत के संदर्भ में विरह और कलात्मक सौन्दर्य प्रस्तुत की हैं यामिनी)
(Yamini, Kathak Dancer and Assistant Professor, Department of Education, Patna Women’s College Autonomous, Patna, Bihar)

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