महारानी कुंती की शिक्षाएं – आज की नारियों के लिए एक अमूल्य प्रेरणा है

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  • कल्पना झा

हम नारी केवल शरीर नहीं, बल्कि संस्कृति की संवाहिका है। हम केवल ममता नहीं, आत्मबल, विवेक और त्याग की प्रतिमूर्ति हैं। जब हम इन गुणों की बात करते हैं, तो हमारे स्मृति-पटल पर एक तेजस्विनी नारी का चित्र उभरता है — महारानी कुंती। महाभारत की यह स्त्री पात्र, आज की आधुनिक नारी के लिए एक आदर्श बन सकती है। उनका जीवन केवल पौराणिक कथा नहीं, बल्कि स्त्रीत्व की गरिमा, शक्ति और आध्यात्मिक उन्नयन का मार्गदर्शन है।

महारानी कुंती धैर्य की प्रतिमूर्ति हैं: महारानी कुंती ने जीवन में अत्यंत जटिल परिस्थितियों का सामना किया। राजसी वैभव होने के बावजूद उनका जीवन सुखद नहीं रहा। अविवाहित अवस्था में सूर्य से वर प्राप्त कर पुत्र कर्ण को जन्म देना, फिर राजपरिवार की मर्यादा हेतु उसे त्याग देना – यह उनके जीवन का पहला बड़ा त्याग था। पति पांडु के वानप्रस्थ गमन और बाद में उनके देहावसान के बाद, उन्होंने विधवा अवस्था में भी पांच पुत्रों को धर्म के मार्ग पर चलने का बल दिया, उन्हें राजनीति, युद्धनीति और सदाचार का पाठ पढ़ाया।
इससे हमें यह प्रेरणा मिलती है कि धैर्य जीवन की सबसे बड़ी पूंजी है। किसी भी परिस्थितियों से भागना नहीं चाहिए, बल्कि उन्हें आत्मबल से स्वीकार कर पार पाना ही असली शक्ति है।

महारानी कुंती की निर्णय की क्षमता: महारानी कुंती ने जीवन के हर मोड़ पर गंभीर और दूरदर्शितापूर्ण निर्णय लिए। द्रौपदी का पाँचों पांडवों की पत्नी बनना हो, या कर्ण के प्रति द्रविड़ प्रेम और धर्मसंकट में पड़कर भी अर्जुन को युद्ध के लिए तैयार करना – कुंती ने जो निर्णय लिए, वे समाज और धर्म दोनों के अनुरूप थे।

इससे हमें यह प्रेरणा मिलती है कि “नारी को केवल भावनाओं से नहीं, बुद्धि और विवेक से निर्णय लेने में सक्षम बनना चाहिए। उसका निर्णय केवल परिवार ही नहीं, समाज को भी दिशा दे सकता है।”

मातृत्व और त्याग की पराकाष्ठा: महारानी कुंती केवल एक माँ नहीं थीं, वे अपने पुत्रों की संस्कार-प्रदायिनी गुरु भी थीं। कर्ण को त्यागना उनका सबसे बड़ा मानसिक आघात था, लेकिन उन्होंने कभी अपने अन्य पुत्रों को उससे कम नहीं सिखाया। उन्होंने पांडवों को धर्म, नीति और करुणा का जीवन देना ही अपना कर्तव्य समझा।

इससे हमें यह शिक्षा मिलती है कि “मातृत्व केवल शारीरिक जन्म नहीं, बल्कि नैतिक और आध्यात्मिक शिक्षा देना भी है। नारी का त्याग उसकी कमज़ोरी नहीं, उसकी आध्यात्मिक महिमा है।”

आध्यात्मिक चेतना और ईश्वर भक्ति: श्रीकृष्ण के प्रति कुंती की निष्ठा अद्वितीय थी। उन्होंने विपत्तियों में भी प्रभु के दर्शन को श्रेष्ठ माना। उनकी यह प्रसिद्ध प्रार्थना आज भी भक्तों को प्रेरित करती है:

“विपदः सन्तु नः शश्वत् तत्र तत्र जगत्गुरो ।
भवतो दर्शनं यत्स्याद् अपुनर्भवदर्शनम् ॥”
(हे जगतगुरु! विपत्तियाँ आती रहें ताकि तुम्हारा दर्शन होता रहे।)

इससे हमें यह शिक्षा मिलती है कि “आध्यात्मिक शक्ति नारी का सबसे बड़ा रक्षक है। ईश्वर में श्रद्धा और आत्मा में विश्वास से ही सच्ची स्वतंत्रता मिलती है।”

संस्कार और संस्कृति की वाहक: कुंती ने अपने पुत्रों को जीवन के हर क्षेत्र में मर्यादा और धर्म का पालन करना सिखाया। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि संस्कारों की नींव पर खड़ा परिवार कभी गिरता नहीं।

इससे हमें यह शिक्षा मिलती है कि “वह केवल भौतिक विकास नहीं, सांस्कृतिक और नैतिक विकास की भी धुरी है। अगली पीढ़ी को नैतिकता, धर्म और कर्तव्य बोध देना उसकी सबसे बड़ी सेवा है।”

महारानी कुंती का जीवन एक आदर्श स्त्रीत्व की पाठशाला है। आज जब नारी स्वतंत्रता, अधिकार और समानता की बात कर रही है, तो उसे कुंती के चरित्र से यह सीखना चाहिए कि नारी की शक्ति केवल बाह्य नहीं, अंतःप्रेरणा, त्याग, धैर्य और भक्ति में भी निहित है। कुंती जैसी नारियों के कारण ही सभ्यताएँ टिकती हैं, संस्कृतियाँ फलती हैं और युगों तक आदर्शों की रोशनी जलती रहती है। आज की नारी, यदि कुंती की शिक्षाओं को आत्मसात करे, तो वह केवल अपने जीवन को ही नहीं, पूरे समाज को उन्नत बना सकती है।

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