लेखक: अवधेश झा, अंतर्राष्ट्रीय योग समन्वयक एवं ट्रस्टी, ज्योतिर्मय ट्रस्ट — योग रिसर्च फाउंडेशन, मियामी, फ्लोरिडा, यू.एस.ए.
स्वामी ज्योतिर्मयानंद जी का जन्म 3 फरवरी, 1931 को बिहार राज्य में हुआ—उस पुण्यभूमि में जहाँ भगवान बुद्ध ने निर्वाण प्राप्त किया, और जहाँ वैदिक, बौद्ध तथा संत परंपराओं की दिव्य ज्योति युगों से प्रकाशित रही है। इस सांस्कृतिक और आध्यात्मिक धरती ने प्रारंभ से ही स्वामीजी के हृदय में सत्य की खोज की ज्वाला प्रज्वलित की।
संन्यास और स्वामी शिवानंद जी की शरण: 22 वर्ष की आयु में, वर्ष 1953 में, स्वामी ज्योतिर्मयानंद जी ने अपने लौकिक जीवन का त्याग कर संन्यास के शाश्वत पथ को अपनाया। वे परम पूज्य स्वामी शिवानंद सरस्वती महाराज के प्रत्यक्ष शिष्य बने, जो भारत के ऋषिकेश में स्थित डिवाइन लाइफ सोसाइटी के संस्थापक तथा समग्र योग परंपरा के महान आचार्य थे।
स्वामीजी ने अपने गुरु की सेवा में स्वयं को समर्पित कर दिया—वे योग वेदांत वन अकादमी में उपनिषद, योगवशिष्ठ, राजयोग और योगदर्शन पर गहराई से प्रवचन देने लगे। उन्होंने स्वामी शिवानंद जी के लेखन का हिंदी में अनुवाद किया, पत्राचार संभाला और ‘योग वेदांत जर्नल’ के प्रधान संपादक के रूप में कार्य किया। यह वह समय था जब उनका अंतर्मन विचार और उपासना के बीच संतुलन साधते हुए आत्मबोध की ओर उन्मुख हो रहा था।
विचार और उपासना — ज्ञान और भक्ति का समन्वय : स्वामीजी के अनुसार, आत्म-साक्षात्कार की यात्रा में विचार (Jnana Yoga) और उपासना (Bhakti Yoga) दोनों ही आवश्यक हैं। उन्होंने स्पष्ट किया कि विचार वह तर्कशील और विवेकनिष्ठ साधना है जो आत्मा के स्वरूप का चिंतन करती है; जबकि उपासना वह भावनात्मक श्रद्धा है जो ब्रह्म की किसी सगुण या निर्गुण रूप में आराधना करती है।
वे कहते हैं कि “जब मन स्थिर और विचारशील हो, तब उपासना करो; और जब चित्त सूक्ष्मता को प्राप्त हो जाए, तब विचार द्वारा आत्मा के परम सत्य का साक्षात्कार करो।” उनके प्रवचनों में यह अद्भुत संतुलन दिखाई देता है—जहाँ भक्तिरस भी है और वेदांत की कठोर तर्कप्रणाली भी।
पश्चिम की ओर योग-ज्योति का प्रसार: 1962 में, अनेक आध्यात्मिक साधकों के आग्रह पर, स्वामी ज्योतिर्मयानंद जी पश्चिम की ओर प्रस्थान कर गए और प्यूर्टो रिको में अपना पहला आश्रम स्थापित किया। कुछ वर्षों बाद, 1969 में, उन्होंने मियामी, फ्लोरिडा में योग रिसर्च फाउंडेशन की स्थापना की, जो आज विश्वभर में योग, ध्यान और आत्मज्ञान की दिव्य किरणें फैला रहा है।
उनकी उपस्थिति ने अमेरिका में भारतीय योग परंपरा को एक गहन दर्शन, अनुशासन और आत्मिक गरिमा प्रदान की। उन्होंने 90 से अधिक ग्रंथों की रचना की, जिनमें वेदांत दर्शन, भगवद्गीता, उपनिषद, पतंजलि योगसूत्र आदि पर गूढ़ विवेचन मिलता है। उनका मासिक प्रकाशन “इंटरनेशनल योगा गाइड” आज भी साधकों के लिए जीवनदायिनी प्रेरणा है।
मानव सेवा और भारत में पुनर्प्रवेश : स्वामीजी का आध्यात्मिक जीवन मात्र आत्मोन्मुख नहीं रहा, वरन् उन्होंने मानव सेवा को ही आत्म सेवा का रूप माना। उन्होंने भारत में कई जनहितकारी संस्थाओं की स्थापना की:
1985: अंतर्राष्ट्रीय योग सोसाइटी तथा नई दिल्ली में दिव्य ज्योति स्कूल की स्थापना
2000: बिहार में पीड़ित और उपेक्षित महिलाओं के लिए ज्योतिर्मयानंद आश्रम एवं प्रशिक्षण केंद्र की स्थापना
2006: सोनीपत (हरियाणा) में ललिता ज्योति आनंदालय—एक अनाथालय और कन्याओं के लिए विद्यालय।
उनका यह विश्वास था कि “आध्यात्मिकता का वास्तविक स्वरूप तब प्रकट होता है जब वह करुणा और कर्म में बदल जाए।”
समग्र योग के आचार्य: स्वामी ज्योतिर्मयानंद जी को आज के युग में ‘समग्र योग’ (Integral Yoga) के प्रमुख प्रवर्तक के रूप में जाना जाता है। उन्होंने योग को केवल आसन और प्राणायाम तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उसे एक व्यक्तित्व की पूर्णता की साधना के रूप में परिभाषित किया—जिसमें कर्मयोग, भक्तियोग, राजयोग और ज्ञानयोग का संतुलित समावेश हो।
उनका जीवन विचार और उपासना का मूर्तिमंत उदाहरण है—जहाँ ज्ञान की तीव्रता और भक्ति की कोमलता एकाकार हो जाती है।
शतायु की ओर बढ़ते ऋषि: आज, जब वे 94 वर्ष की आयु में हैं, वे न केवल एक जीवित योगी हैं, बल्कि एक जीवित वेदांत भी हैं। उनका जीवन-दर्शन, उनकी पुस्तकें, उनके आशीर्वाद, और उनके दर्शन आज भी साधकों को आत्मज्ञान के शिखर की ओर प्रेरित कर रहे हैं।
स्वामी ज्योतिर्मयानंद जी की योग यात्रा एक युग की यात्रा है—जहाँ एक दिव्य ऋषि बालक बिहार की मिट्टी से उठकर विश्व को ब्रह्मज्ञान की अमृतवाणी पिलाता है। उनकी साधना, उनकी सेवा और उनका सद्गुरुत्व आने वाली पीढ़ियों के लिए एक प्रकाशस्तंभ की तरह है।
उनका संदेश स्पष्ट है —
“विचार से आत्मा का ज्ञान लो,
उपासना से हृदय को शुद्ध करो,
और सेवा से इस संसार को दिव्यता से भर दो।”